गाँधी हत्याकांड से जब मैं वाकिफ हुआ


606824, यह संख्या मात्र संख्या न होकर महात्मा गाँधी को 30 जनवरी, 1948, शाम 5 बजकर 17 मिनट पर गोली दागने वाले नाथूराम विनायक गोडसे की पिस्तोल की संख्या है। गोडसे ने गाँधी को तीन गोलियाँ दागी थी। इस हत्याकांड का साक्षी मैं भी हुआ जब हाल में ही प्रकाशित प्रखर श्रीवास्तव की पुस्तक ‘हे राम- गांधी हत्याकांड की प्रामाणिक पड़ताल’ पुस्तक को आद्योपान्त किया।
चूँकि मैं सुदूर पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर से आता हूँ जहाँ की शिक्षा-पद्धति, स्थानीय लोगों की विचारधारा एवं संस्कृति की नींव अन्य भारतीय क्षेत्रों से पृथक है। राष्ट्रवाद, हिन्दुत्ववाद, देशभक्ति जैसे विचारों से कम ही लोग भिज्ञ है। केन्द्र की नीतियाँ एवं राजनैतिक गतिविधि से भी लोग अनभिज्ञ रहते है चाहे वो भूतकाल की हो या वर्तमान की। ऐसे परिस्थिति में सरकार द्वारा निर्मित शिक्षा व्यवस्था के अनुसार दी जानी वाली शिक्षा ही सर्वोपरी होती है और आजादी के पश्चात कांग्रेस की सरकार लगभग 60 वर्ष तक सत्ता में रही है। शिक्षा व्यवस्था के तहत महात्मा गाँधी को बचपन से ही हमने राष्ट्रपिता, अहिंसा के पुजारी, महात्मा, आदर्श नेता जैसे बडे़-बडे़ उपनामों के साथ पढ़ा है। उनके विचारों और कृत्यों को लोगों ने सदैव से सम्मान की दृष्टि से देखा है। यह मान्य है कि वर्तमान में भी गाँधी जी को भगवान के समान श्रद्धाभाव रखने वालों की कमी नहीं है। भारत के प्रधानमंत्री विदेश भ्रमण के दौरान किसी न किसी स्थान पर गाँधी की मूर्ति का अनावरण करते रहे है।
मैं, कह रहा था कि मैं मणिपुर राज्य आता हूँ इसलिए केन्द्र सरकार की गतिविधि, इतिहास की राजनैतिक घटनाओं की जानकारी से अनभिज्ञ था। जब भी माहात्मा गाँधी के विषय में पढ़ा उनको सदैव महापुरुष के दर्जे में पढ़ा है। मैं, एक दशक पहले दिल्ली आया था, यहाँ के विभिन्न संगठनों के कार्यक्रमों में अनेक बार भाषण सुना और लोगों से गाँधी के दूसरे पक्ष के व्यक्तित्व को भी सुना- गाँधी ने भारत का बटवारा कराया, लाखों निर्दोष लोग इस बटवारें में मारे गए, गाँधी ने मुस्लिम प्रेम में पाकिस्तान को पैसे दिलाए इत्यादि तब भी मन को विश्वास नहीं होता था। वैसे भी कहकही बातों पर अधिक विश्वास नहीं होता जब तक उसको प्रामाणिकता से परोसा नहीं जाता। मन संकोच एवं संशय से भरा था।
इतिहास कई बार सत्ता के इच्छानुसार लिखा जाता है। सत्ता के विरूद्ध किसी को लिखने की हिम्मत नहीं होती या लिखने की इजाजत नहीं होती। और यह बात भी सत्य है कि सत्ता में आसिन शीर्षस्थ लोगों को लुभाने के लिए उनकी प्रशंसा और उनकी अच्छी नीतियों को ही लिखा जाता है। किन्तु सत्य कभी नहीं छुपता। सचाई भले ही लिखित रूप के माध्य से प्रमाणित न हो परन्तु उस विशेष क्षेत्र में कार्य करने वाले लोग पीढी-दर-पीढी को सुनाते आते है। यही बात भी सत्य है कि इतिहास हमेशा पढे-लिखे विद्वानों के द्वारा लिखे को ही मान्य देती है। छोटे पद के लोग या यू कहो नौकरों के बातों को कोई मान्यता नहीं दी जाती। लेकिन इस कटेगरी में आने वाले लोगों की अपनी ही श्रुतिपरम्परा टाइप की एक इतिहास होती है। ये अपने क्षेत्र के लोगों को पीढी-दर-पीढी स्वयं से देखी घटनाओं को सुनाते चलते है। यह कड़ी इसलिए जोड़ रहा हूँ क्योंकि मैंने जब 2008 में राजनीति के गलियारों का शहर दिल्ली आया तब सुनने लगा वही श्रुतीपरम्परा के माध्यम से गाँधी, नेहरू, इंदिरा आदि के यथार्थपरक घटनाएँ तब स्कूल में पढ़ा ‘गाँधी महान थे, गाँधी माहात्मा थे इत्यादि….’ पर जमकर कसा हुआ थप्पड़ जैसा था लेकिन इन बातों को विश्वास करना आसान नहीं था और लोगों को बताना भी क्योंकि जिसको दुनिया भगवान मानने लगी है उसके विरूद्ध की गई बातों को कौन सुनना चाहेगा?
ऐसे ही मन में भरे पड़े कई संशयों एवं कुण्ठा को प्रखर श्रीवास्तव की पुस्तक ने शान्त किया है। ‘हे राम-गाँधी हत्याकांड की प्रामाणिक पड़ताल’ पुस्तक 562 पन्नों की आयतन में फैली भीमकाय पुस्तक को चंद दिनों में पढ़ पाना आसान नहीं था लेकिन यू कहो मेरी उत्कुण्ठा और प्रखर श्रीवास्तव की प्रामाणिक लेखनी की सक्षमता है कि मैंने चंद दिनों में पढ़ लिया। इस पुस्तक में लगभग सन् 1940 से 15 नवम्बर, 1949 गोडसे के फाँसी तक का राजनैतिक वातवरण, विभाजन, शरणार्थियों की दुदर्शा, गाँधी हत्याकांड और कोर्ट ट्रायल जैसे घटनाओं का विस्तार से जिक्र किया गया है। शुरू से अंत तक इस पुस्तक को पढ़ना मेरे लिए 1940 से गांधी और गोडसे के साथ सफर करने जैसा था। जिस बापू को मैंने महानपुरूष के रूप में पढ़ा था, जब उनको गोडसे की गोली लगी तब रत्तीभर भी भावना और दया मन में नहीं जगी कारण इस पुस्तक में वर्णित उनके मुस्लिम तुष्टीकरण, नेहरू मोह में योग्य नेताओं को दरकिनार करना, मुस्लिम प्रेम में हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार को नजरअंदाज करना, मुस्लिम के लिए जान तक लगाने को तैयार होना, भारत विभाजन में उनका अहम योगदान होना, विभाजन के पश्चात हिन्दू शरणार्थी पर दया न रखना बल्कि पूरी अहिंसा और अनशन की ताकत मात्र मुस्लिम के लिए लगा देना, पाकिस्तान के द्वारा विभाजन के उपरान्त भारत पर हमला करने के बावजुद पाकिस्तान को 55 करोड़ देने के लिए अनशन पर बैठ जाना आदि से उनके प्रति घृणा सी उत्पन्न हुई। पुस्तक पढ़ते वक्त कई बार ऐसा लगा काश! गाँधी जी ने ऐसा न किया होता तो भारत आज ऐसा होता, काश! हिन्दु के साथ गाँधी ने ऐसा न किया होता, काश! सरदार पटेल जैसे नेता के भाव को समझा होता!
पढ़ते समय कई बार ऐसा भी लगा कि घटना के सात दशक बाद लिखी इस पुस्तक में उल्लेखित घटनाओं को लेखक ने इतनी बारीकी और आत्मविश्वास के साथ कैसे लिखा होगा? जैसे लेखक ही उस वक्त घटनास्थल में विद्यमान हो। परन्तु इस शंका को दूर करती है उनके द्वारा अनुसंधान की गई प्रत्येक पुस्तकों की व्योरा जो उस समय के नेता, सचिव, निजी सहयोगी और पत्रकारों ने लिखी थी। उन तमाम पुस्तककों के सन्दर्भ को इस पुस्तक में वर्णित हर काल एवं दृश्यों का साक्ष्य के रूप में सटीक उपयोग करना कितना कठिन रहा होगा! इसके लिए लेखक को साधुवाद।
इस पुस्तक में मात्र घटनाओं की साक्षों को प्रस्तुत नहीं किया गया है बल्कि गाँधी और गोडसे की विचारधारा का टकराव भी है। पुस्तक में दोनों के विचारधाराओं को घटनाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है। किस विचारधारा से पाठक प्रभावित होंगे ये पाठक के उपर निर्भर है, मुझे लगता है लेखक ने पाठक के उपर किसी भी विचारधारा को थोपने का प्रयास नहीं किया है। मेरा व्यक्तिगत अनुभव रहा है कि लेखनी में हिन्दु पर हुए अन्याय पर अधिक बल दिया है जैसे गाँधी जी ने मुस्लिम समुदाय के प्रति अधिक बल दिया था। चूँकि मैं हिन्दु हूँ और राष्ट्र के प्रति प्रेम रखता हूँ इसलिए भी गोडसे के विचारधारा से प्रभावित हुआ हूँ। पुस्तक से चन्द पंक्ति यहा रख रहा हूँ जो गोडसे ने कही है-
‘मैं अपने मातृभूमि के चरणों में अपना बलिदान पस्तुत कर रहा हूँ। मेरे इस कार्य की वजह से मेरे परिवार की दुर्दशा अवश्य हो गई है, लेकिन मेरी आँखों के सामने हमेशा खंडित मंदिर, कटे हुए सिर, बच्चों की निर्मम हत्या के दृश्य तैरते हैं। इसलिए आततायी और अनाचारी दुष्टों को मिलने वाली सहायता को समाप्त करना मैंने अपना कर्तव्य समझा था। मेरा मन शुद्ध है और मेरी भावना भी उसी प्रकार अत्यंत शुद्ध थी। कहने वाले कुछ भी कहते रहें, लेकिन एक पल के लिए भी मेरा मन बिक्षुब्ध नहीं हुआ। यदि संसार में स्वर्ग नाम की कोई स्थान है तो मेरा स्थान वहाँ सुरक्षित है। उसके लिए मुझे किसी प्रकार की विशेष प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं होगी। यदि कहीं मोक्ष है तो उसकी कामना मुझे है।’
‘मैं यह बनाता चाहता हूँ कि मेरे मन में देशप्रेम के अलावा कुछ न था। मुझे इस कारण यह कदम उठाना पड़ा क्योंकि पाकिस्तान बनने पर जो भयंकर घटनाएँ हुई, उनके लिए केवल गाँधी ही उत्तरदायी थे। मैंने गाँधी जी को राजनैतिक क्षेत्र से सदा के लिए हटाने का फैसला किया। मैं जानता था कि ऐसा करने पर व्यक्तिगत रूप से मेरा सब कुछ नष्ट जो जाएगा।’
‘यदि देशभक्ति पाप है, तो मैं मानता हूँ कि मैंने पाप किया है। यदि देशभक्ति प्रशंसनीय है, तो मैं अपने आपको उस प्रशंसा का अधिकारी समझता हूँ। मुझे विश्वास है कि यदि मनुष्यों द्वारा स्थापित न्यायालय से ऊपर कोई और न्यायालय होगा तो उसमें मेरे कार्य को अपराध नहीं समझा जाएगा।’
पूरे पुस्तक में गोडसे द्वारा बताये अनेक प्रसंग आते है जिससे पाठककों का मन प्रभावित करता है। गोडसे के विचारों के प्रति पाठक सहमत हो सकते है! जैसा कि लेखक ने भी पुस्तक में लिखा है कि गाँधी हत्या के पश्चात जब गोडसे ने अदालत में पहली बार अपनी दलील रखी उसे सुनर सब स्तब्ध रह गए थे। तालियाँ बजी थी। उसको बयान को जब अखबारों पर छपा तब देश की एक बडी संख्या गोडसे को सही बताने लगे थे यहाँ तक कि उसके रिहाई के लिए धरने तक दिए थे। इसी डर से नेहरू सरकार ने अखबार पर गोडसे की खबर छपने पर शिकंजा कस दिया था और उसके बयान को सार्वजनिक करने पर प्रतिबंध लगा दिया था। किन्तु इस पुस्तक के माध्यम से गोडसे के विचारधारा/बयान हम सभी तक पहुँचना सच्चाई से पर्दा उठना जैसा है। इतिहास को इतिहास बनाए रखने के लिए सत्य लिखना जरूरी है चाहे सत्य कितने साल बाद भी क्यों न सामने आए। गाँधीहत्या कांड की सच्चाई इस प्रकार की प्रामाणिकता के साथ अभी आना इतिहासको इतिहास की तरह लिखना जैसा ही है। लेखक प्रशंसा के पात्र है।
पुस्तक पढ़ना भी पुस्तक पर वर्णित घटनाओं के काल में जाकर उसको जीना होता है। पुस्तक में ऐसे कई प्रसंग आते है जिसको जानकर सच्चाई कम आश्यर्च अधिक लगता है। प्रसंग आता है गाँधी जी द्वारा ‘ब्रम्हचर्य प्रयोग’ का- क्या गाँधी जैसे महान पुरूष को अपने ब्रम्हचर्य को प्रमाणित करने के लिए अपनी पोती मनुबेन, बहु आभाबेन को अपने साथ नग्न सुलाना, हर वक्त अपने साथ रखना कहाँ तक व्यावहारिक है?
गोडसे का देशप्रेम, अखंडभारत के प्रति श्रद्धा, हिन्दुत्व के प्रति प्रगाड भक्ति, हिन्दु के प्रति हो रहे भेदभाव से उसको पीड़ा पहुँचना उसके व्यक्तित्व को सम्मानीय कर देता है। भारत विभाजन, हिन्दु शरणार्थी पर अत्याचार पर गांधी जी द्वार अनदेखा करना, पाकिस्तान को 55 करोड़ दिलाने के लिए अनशन पर बैठना, गोडसे को देश विरूद्ध कार्य लगता है और राष्ट्रहित के लिए गांधी की हत्या कर देता है। उसके बयान, विचार जानने के पश्चात एक दृष्टि से ऐसा लगता है कि गोडसे ने जो किया वो ठीक था, भले ही हत्या गलत राह थी किन्तु वो अपने विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध था। कोर्ट में उसके द्वारा दिए गए बयान से अभी पढने वाले पाठक ही नहीं अपितु उस समय कोर्ट में मौजुद लोग या तक कि जज भी उसके बयान से प्रभावित होने से नहीं बच पाए थे। गोडसे द्वारा अपने माता-पिता को लिखा गया पत्र अति मार्मिक था। पुस्तक में यह पत्र पढते समय मेरी भी गोडसे के लिए भावना उमड़ पडी।
इस पुस्तक को पढ़ने के बाद मेरे मन में अनुभवों का ढ़ेर हैं लेकिन यह पाठक प्रतिक्रिया को यही अंत करना चाहूँगा। अन्त में यही कहना चाहूँगा कि पुस्तक सभी नहीं पढ़ते, और मुझे लगता है इस पुस्तक का उद्देश्य एवं तथ्यों को सभी भारतवासियों तक पहुँचाना चाहिए। अगर यह पुस्तक वेब सेरिज के रूप में आएगी तो मुझे लगता है इस सत्य से हर भारतवासी वाकिफ होंगे।
पुस्तक की व्यापक सफलता के लिए हार्दिक शुभकामना।
-हर्कबहादुर लामगादे ‘रोहित’





